Shri Shantilal B. Jain (Convener, Udan)

“कौन कहता है कि आसमान में सुराख नहीं हो सकता, एक पत्थर तबियत से उछालों यारों” – इस कहावत को चरितार्थ किया है हमारे, आपके और हम सबके लाडले शांतिलाल बी. जैन ने। उन्होंने अपनी लगन, मेहनत और पक्के इरादे के साथ एक ऐसा पत्थर आसमां पर उछाला, जिसने एक नहीं कई सुराख से आसमां को भर डाला।
राजस्थान के उदयपुर जिले के गोगुंदा तहसील के आदिवासी पहाड़ी क्षेत्र के एक छोटे से गाँव सेमड़ में एक अभावग्रस्त जैन परिवार स्व. श्री भवरलाल नांदेचा के घर में 4 जनवरी 1949 को शांतिलाल जी का जन्म हुआ। बडे भाई मांगीलालजी एवं बसंत कुमारजी तथा बड़ी बहन कंचनबेन एवं छोटी बहन विनोदीबेन के साथ उनका बचपन बेहद ही गरीबी व संघर्षों के साथ गुजरा। समयानुसार छोटे से गाँव में थोड़ी सी जमीन पर खेती-बाड़ी व पशुपालन जब परिवार पर भारी पड़ने लगा तो उनके पिताजी स्व. श्री भंवरलाल जी मुम्बई चले आये और धनजी स्ट्रीट में अपने एक परिचित की दुकान पर काम करने लगे। पिताजी के मुम्बई आने के पाश्चात् माताजी स्व. श्रीमती मगनी देवी ने पारिवारिक दायित्वों को उठाया तथा भाई-बहनों के साथ गाँव की प्रारंभिक पाठशाला में शांतिलाल जी का नामांकन कर स्कूली शिक्षा का शुभारंभ हुआ।
छठी से आठवीं की पढ़ाई के लिए उन्हें नजदीक के ही कमोल गांव के स्कूल में भर्ती कराया गया जो कि उनके गांव से 4-5 किलोमीटर की दूरी पर था। वहाँ ये प्रति दिन पैदल ही सहपाठियों के साथ ही आया-जाया करते थे। इस दौरान शांतिलालजी को अपने पारिवारिक स्थिति का अहसास होने लगा था। माँ को अकेला खेती-बाड़ी तथा पशुपालन के व्यस्तता तथा अभावग्रतता से जुझता देख उनका कोमल मन को कचोटने लगा और वे पढ़ाई के साथ वे माँ के कार्यों में हाथ बँटाने लगे। घर में गाय-भैंस के दूध, दूध से बने घी और गाँव की होलसेल दुकान से पिपरमेंट की बनी गोलियाँ खरीदकर वे आस-पास के पहाड़ी इलाके के आदिवासी गाँवों में जाकर बेंचने लगे और उसके बदले में चना-मक्का जो भी मिलता उसे लेकर घर पर लाने लगे।
आर्थिक तंगी से जुझते अपने परिवार को बाहर निकालने के लिये शांतिलाल जी 16 वर्ष की किशोरावस्था आयु में मुम्बई से सटे भिवंडी आ गये। वहाँ उनके बड़े भाई बसंतजी वहाँ पावरलूम का काम किया करते थे। किसी कारणवश पावरलूम व्यवसाय में भारी घाटे का समाना करते हुए बसंतजी उस वक्त भारी पारिवारिक कर्ज में डूब गये। आर्थिक तंगी से जुझते अपने परिवार को बाहर निकालने के लिये शांतिलालजी ने भिवंडी में सुबह घर-घर जाकर अखबार बाँटने का काम शुरू किया। साथ ही पावरलूम में मजदूरी, हाथ गाड़ी में फल बेंचने क कार्य किया। धीरे-धीरे पारिवारिक कर्ज को चुकता कर काम के साथ आगे की पढ़ाई शुरू किया। मुम्बई के खालसा कॉलेज व एम.डी. कॉलेज से इंटर तक की पढ़ाई पूरा किया।
सन् 1972 तक आते-आते शांतीलाल जी का पुरा परिवार भिवंड़ी से शिफ्ट होकर मुम्बई कालबादेवी स्थित कोलभाट लेन चाल में रहने आ गया। यहाँ पर शांतिलाल जी ने कपड़ा बेचने का काम करने लगे। मेहनत, लगन और ईमानदारी से किया गये कार्य से कब तकदीर बदल जाती है, इसका पता ही नहीं चलता है। कपड़े के इस छोटे से व्यवसाय पर वर्धमान ग्रुप के मालीक पुखराज जी राठौड़ की नजर पड़ी। उन्होंने इनकी व्यवसाय के प्रति मेहनत और लगन को देखकर उस जमाने में कपड़े का हॉलसेल व्यवसाय करने के लिये 5 हजार रुपये ऋण देकर शांतिलाल जी व मांगीलालजी को प्रोत्साहित किया। फिर क्या था, उन्होंने कभी पलटकर पिछे नहीं देखा। मुम्बई के उपनगरों में दुकान-दुकान जाकर कपड़े का हॉलसेल भाव में बेचने लगे और व्यवसायिक सफलता इनकी कदम चूमने लगी। सफलता के इसी दौर में पालघर, केलवा रोड निवासी श्री हुकुमचंद जी सोलंकी की पुत्री लीलावती जी से 13 जुलाई 1972 में शातिलाल जी का विवाह उदयपुर में सादगी के साथ सम्पन्न हुआ।
धर्मपत्नी लीलावती देवी भी इनकी तरह ही एक साधारण परिवार से थी। अच्छी हमसफर के रूप में लीलावती देवी अपने साथ लक्ष्मी का भंडार लेकर आई। 1972 में शुरू हुआ शांतिलाल जी का कपड़ा व्यवसाय फेब्रिक, रेडीमेट गारमेंट, शुटींग-शर्टींग के रूप में महाराष्ट्र ही नहीं अन्य प्रांतों में भी “दिन दो गुनी, रात चार गुनी” तरक्की करने लगा। 1973 में इन्होंने अपनी किराये की दुकान जहाँ से व्यवसाय व रहना दोनों होता, वह खरीद लिया। 1976 में मरीन ड्राईव पर अपना खुद का बड़ा फ्लैट भी खरीद लिया। समय के साथ धन, व्यवसाय, शौहरत तमाम उपलब्धियाँ इनके जीवन में आती गई लेकिन घमंड़ कभी नहीं आया। बचपन की गरीबी, तकलीफें, पारिवारिक परेशानियों का कटू अनुभव इनको हमेशा याद रहता था।
कालंतर में बदलते वक्त के साथ इन्हें तीन संतानों की प्राप्ति हुई। बड़ी बेटी वनीता, उसके बाद पुत्र कीर्ती व सबसे छोटी बेटी प्रिति। व्यवसाय व समाजिक सरोकारों के साथ-साथ अपने बच्चों को पढ़ा-लिखा कर योग्य बनाने लगे और सन् 1985 से 1992 तक तेरापंथ समाज मुम्बई के अध्यक्ष पद की गरीमा बढ़ाकर समाज में सम्मान हासिल किया। यह वह वक्त था जब समस्त राजस्थानी व्यवसायी मुम्बई में कामयाबी का सफर सफलता पूर्वक तय करके अपनी किर्ती व यशगान चारों तरफ फैला रहे थे। इस दौरान इनके पुराने मित्र, उदयपुर कॉलेज के सहपाठी व राजस्थान सरकार के वर्तमान गृहमंत्री श्री गुलाबचंद जी कटारीया के साथ निरंतर सम्पर्क बना रहता था और राजनीति व समाजसेवा भी निरंतर चल रही थी। शांतिलालजी ने 22 फरवरी 1992 को अपने कालबादेवी क्षेत्र से भारतीय जनता पार्टी के प्रत्याशी के तौर पर नगरसेवक का चुनाव लड़ा और पूर्ण बहुमत से विजय हासील की और बिना किसी स्वार्थ के नगरसेवक पद की गरीमा बनाए रखी। वर्ष 1996-97 में 221 नगरसेवकों में से उन्होंने सर्वश्रेष्ठ नगरसेवक का खिताब प्राप्त किया। वर्ष 1997 में बी.एम.सी. की स्थापत्य समिति के चेयरमैन पद को सुशोभित किया।
बी.एम.सी. की स्थापत्य समिति के चेयरमैन के तौर पर काफी ऐसे काम किए जिससे शांतिलाल जी चर्चाओं में रहें। इन्होंने “कचरा दिखाओं, 300 रूपये ले जाओँ” जैसै सफाई अभियान चलाकर 1996 में पूरे मुम्बई से कचरे का सफाया करवा दिया। इसी के साथ “महानगरपालिका आपके द्वार” अभियान चलाकर प्रशासन को सीधे जनता से जोड़ने का सफल प्रयास किया। इसके अलावा सी-वार्ड में गंदे पानी के सप्लाई के विरोध में उग्र-आंदोलन कर 70 करोड़ रूपये की लागत से नये पाइपलाईन का काम करवाकर स्वच्छ पानी जनता को उपलब्ध करवाया। जुहू चौपाटी में आगमोधारक आनंद आचार्य सुरिश्वरजी मा.सा. चौक सहित पूरे मुम्बई में लगभग 144 चौक का निर्माण करवाया। गरीब आदिवासी कन्याओं का विवाह, मुफ्त चिकित्सा शिविर, ब्लड डोनेशन कैम्प सहित विविध सामाजिक क्षेत्र में अपनी जिम्मेवारीयो का निर्वाहन समय-समय पर किया। साहित्य व कवि सम्मेलन व समाजिक सरोकारों को जड़ती संस्था “उड़ान” से आज भी हृदय से गहरा रिश्ता है।
समय के साथ आगे बढ़ते हुए शांतिलाल जी ने एक नये व्यवसाय की तरफ कदम बढ़ाया और 2006 में इन्होंने “एस. बी. डेव्हलेपर्स” के नाम से मुम्बई से सटे पालघर में बिल्डिंग कन्ट्रकशन का काम शुरू किया जो आज तक इनके साथ ही पुत्र किर्ति जैन अनवरत रूप से चला रहें है। शांतिलाल जी आज भी सामाजिक सेवा, मानव सेवा, जीवदया के काम में निरंतर लगे हुए है। घने संघर्ष, गरीबी व अभाव की आग में जलकर कुंदन बन चुके शांतिलाल जी आज लौह पुरूष व प्रेरणास्रोत के रूप में हमारे सामने विध्यमान है।